तुलना करना...
ये तुलना शब्द जैसे हमारे
जीवन के हर पहलू के साथ जुड़ा हुआ है...
एक संतुलित और स्वस्थ
तुलना करना जितना सही है वही उतना ही गलत है हर चीज़ और हर भावना में तुलना करना...
तुलना का उद्देश्य
सकारात्मक प्रतिस्पर्धा से होना चाहिए...
आसमान में उड़ने वाली
चिड़िया की तुलना पानी में रहने वाली मछली से करना कितना सही है??
रात को खूबसूरत चांदनी
बिखेरने वाले चाँद की तुलना दिन मे ऊर्जा और जीवन देने वाले सूरज से करना कितना
सही है.....
क्या इनकी तुलना हो सकती
है???
अगर कोई इनकी तुलना करे
भी तो हम कहेँगे कि ईश्वर ने इन्हे अलग अलग उदेश्य से बनाया है, और इनकी तुलना कभी नहीं हो सकती...
फिर आज के दौर में महिलाओ
और पुरुषो की तुलना क्यों???
जाने अनजाने, कभी ना कभी अक्सर हम भी कह देते है कि आजकल हर
क्षेत्र में लड़कियां लड़को की बराबरी कर रही है, कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है.... क्या ये तुलना करना
नहीं है????
क्या हमें खुद को साबित
करने के लिए ऐसी तुलना की जरूरत है????
मै किसी भी एक पक्ष की
तरफदारी नहीं कर रही हूं क्युकी दोनों पक्षो की तुलना की ही नहीं जा सकती, अगर ऐसा होता भी है तो वो दोनों के अस्तित्व पर
प्रश्न चिन्ह लगाने जैसा होगा.....
दोनों का वजूद एक दूसरे
का पूरक ना कि तुलना का विषय...
माँ की ममता जहाँ जीवन
में छाँव की तरह होता है तो पिता के अनुशासन की धूप भी जीवन के पौधे को हरा भरा
रखने की लिए ही उतनी ही जरुरी...
क्या दोनों में तुलना हो
सकती है??
तुलना करना कतई उचित नहीं है।