ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सन्मति दे भगवान
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"रघुपति राघव राजा राम,
पति तपावन सीताराम" एक बहुत प्रसिद्ध भजन
है, जिसे राम धुन भी कहा जाता
है। इसे लक्ष्मणाचार्य ने लिखा था और ऐसा कहा जाता था कि गांधी जी की दांडी यात्रा
के दौरान प्रसिद्ध संगीतकार विष्णु दामोदर पर्लुस्कर ने इसे संगीत दिया था,
वही वह धुन है जिसे हम आज भी गाते हैं। मगर इस
गीत में ईश्वर अल्लाह तेरो नाम वाली पंक्ति कैसे जुड़ी?
रघुपति राघव राजा राम
वाले मूल भजन में ईश्वर अल्लाह तेरो नाम नहीं है, यह हम सब जानते हैं। यह भजन कुछ इस तरह है-
रघुपति राघव राजाराम।
पतित पावन सीताराम।।
सुंदर विग्रह मेघाश्याम।
गंगा तुलसी शालीग्राम।।
भद्रगिरीश्वर सीताराम।
भगत-जनप्रिय सीताराम।।
जानकीरमणा सीताराम। जय जय
राघव सीताराम।।
मगर हम जो भजन आज गाते
हैं, वह कुछ ऐसा है-
रघुपति राघव राजाराम,
पतित पावन सीताराम
सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सब को सन्मति दे भगवान
राम रहीम करीम समान,
हम सब है उनकी संतान
सब मिला मांगे यह वरदान,
हमारा रहे मानव का ज्ञान।
इस बदलाव के बाद यह
सर्वधर्म प्रार्थना जैसा हो गया है और साथ ही काफी सरल भी हो गया है। हालांकि आजकल
कुछ शुद्धतावादी और कुछ कट्टर हिंदुत्व के समर्थक इस पर आपत्ति जताते हैं। यह काफी
दिनों से कहा जाता रहा है कि राम के भजन में अल्लाह को घुसाने का अधिकार गांधी को
किसने दिया। हालांकि उस बहस में मैं इस पोस्ट में नहीं जाउंगा। मेरे इस पोस्ट का
मकसद सिर्फ यह बताना है कि यह भजन कब बदला।
वह 22 जनवरी 1947 का दिन था। गांधी अपनी यात्रा करते हुए नोआखली के पनियाला
गांव पहुंचे थे। उस गांव में जब शाम के वक्त प्रार्थना सभा बैठी तो बारिश होने
लगी। हालांकि बारिश के बावजूद कोई सभा से उठा नहीं। सभा में काफी मुसलमान भी थे।
लोगों ने सिर्फ बचाव के तौर पर गांधी जी के सिर पर चादर डाल दिया। उस प्रार्थना
सभा में गांधी जी की पोती मनु भजन गा रही थी। वह अपनी डायरी में लिखती हैं,
अचानक एक नई धुन दिमाग
में आ गयी और मैंने उसे गाना शुरू कर दिया-
रघुपति राघव राजा राम,
पतित पावन सीताराम,
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सन्मति दे भगवान।
लोग भी उसे बहुत उत्साह
से गाने लगे। मैंने वह भजन गा तो दी मगर भय था कि बापू से पूछे बगैर ही मैंने यह
काम किया है, पता नहीं वे क्या
सोचेंगे। भजन के बाद जब बापू का प्रवचन शुरू हुआ तो वे कहने लगे, आज की रामधुन मुझे काफी मधुर लगी। लोगों को भी
काफी पसंद आयी, मनुड़ी तुमने इसे कहां
सीखा?
मैंने कहा- पोरबंदर में
सुदामा मंदिर में एक सभागृह है। वहां एक ब्राह्मण महाराज कथा कहते थे। उनकी कथा
पूरी होने पर राम धुन गायी जाती थी। उसमें हर जाति के लोग भाग ले सकते थे। मैं भी
आठ-दस वर्ष की उम्र में अपनी मां के साथ वहां जाती थी। वहां एक दिन मैंने यह धुन
सुनी। यहां आज अचानक वह दिमाग में आ गयी।
बापू कहने लगे, ईश्वर ने ही तुम्हें यह धुन सुझायी। मेरे यज्ञ
में ईश्वर खूब मदद दे रहा है। उस शक्ति पर मेरी श्रद्धा अधिकाधिक प्रबल हो रही है।
चारो ओर से मेरे काम का विरोध हो रहा है, तब मैं और अधिक दृढ़ हो रहा हूं। मेरे साथ मेरा ईश्वर है और यह मुझे कितनी
सहायता दे रहा है, यह तुम देखो। आज की यह
राम धुन इसकी साक्षी है।
अब रोज यही धुन गाना। कौन
जाने इस कठिन समय में ईश्वर ने ही तुम्हें यह धुन सुझायी हो। ठीक समय पर इससे
प्रार्थना में नये प्राण का संचार हो गया। मां-बाप के साथ भजन-कीर्तन में जाने से
कभी-कभी ऐसा लाभ होता है, जो जीवन में महत्वपूर्ण
भाग अदा करता है। मैं भी पोरबंदर में रामजी के मंदर में जाता तब बड़ा आनंद आता था।
परंतु आजकल सब मिटता जा रहा है। सुदामा जी के मंदिर में ब्राह्मण ने अल्लाह का नाम
बहुत स्वभाविकता में लिया। आज का यह कलुषित वातावरण तो पिछले पांच सात साल में ही
बढ़ा है।
- यह मनुबेन की उस डायरी का
अंश है, जिसे पढ़कर उस पर रोज
गांधी अपने हस्ताक्षर करते थे। गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने भी अपनी किताब द
लास्ट फेज में इस प्रसंग का इसी तरह उल्लेख किया है।